Tuesday, September 1, 2009

एक बदनज्म


तुम्हारे घर के जीने से लग के बैठना अच्छा ही लगा था
वहीँ से शाम ढले परिंदों को दूर जाते और फ़िर,
धुंधलके मे खो जाते भी देखा था
"छोटी" की बेमानी बातों पर हंसा भी बहुत.
बगल की छत पर खड़ी लड़की की शोख आँखें भी भली ही लगी थी .
देर तक, न जाने कितनी ही देर तक बैठा रहा ।
अपनी फॅमिली एल्बम देखता रहा
आज माँ बहुत याद आ रही थीं .
नीचे कमरे से रह रह कर तुम्हारी आवाज आ जाती थी
पर तुम नही आयीं ...........................
तुम्हारी सब मजबूरियां जायज है जान
मगर तुमने ये कभी सोचा की,
जाने कितने काले कोस चल के कोई तुमसे,सिर्फ़ तुमसे मिलने आया था
परिंदे मेरी छत से भी दिखतें हैं

जीना - stairs

4 comments:

  1. achcha likha hai, likhte rahen, shubhkaamnayen.

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  2. परिंदे मेरी छत से भी दिखतें हैं-

    -बहुत गहरे भाव!! वाह!

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  3. kya likte ho bhai...........bahut hi accha
    subhkamnayen

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