Tuesday, September 4, 2012

एक दलित कविता

शाख से टूटे तो फिर मर जाएँगे पत्ते
फूलों की नुमाईश मे बिखर जाएंगे पत्ते 

मालिक ने भी फूलों को ही तो सर पे चढ़ाया
है मतलबी माली तो किधर जाएँगे पत्ते |

 फूलों की बेरुखी के हश्र का सवाल था
 मेरा था ये जवाब  कि झर  जाएँगे पत्ते 

बारिश ये रहमतों  की तो बस एक फ़रेब है 
तुम देखना ओसों से सँवर जाएँगे पत्ते 

तुमको है ये गुमाँ कि शहर दिल्ली दूर है
 मुझको है  ये यकीन कि शहर जाएँगे पत्ते