Monday, February 7, 2011

उम्मीदें, उम्मीद से हैं




उधडे यादों को फिर एक बार रफू करना है


जो रह गया था वही, फिर से शुरु करना है।



ख्वाब बुनने की आदत है सो जाती ही नहीं


सोचते रहते हैं यूं करना हैं, यूं करना है



बूढे बरगद से तेरा नाम मिटा आये है


बेवजह ही तुझे बदनाम भी क्यूं करना है।



ज़ेहन को फिक्र 'तू मेरी बुरी आदत है '


मैने ठाना कि इस आदत ओ जूनूं करना है



दिल को लगता है तू आएगा पशेमां एक दिन


दिल का क्या है इसे हर हाल सुकूं करना है ।



ज़ेहन- दिमाग


पशेमां- पछतावा

(चित्र गूगल से साभार)




Tuesday, December 28, 2010

मचान


तुम तीन थे ना ?

एक बच गया।

अभागा!

तुम, जो कि खुद मे ही मुकम्मल थे

फकत तुम्हारी सोच तुम्हे हमसे ज़ुदा करती थी।

कुछ कुछ "स्पीड थ्रिल्स" जैसे।


कार के आगे शीशे पर

कत्थई जैसा कुछ सूख गया है

खून ही होगा।

पान तो खाते नही थे तुम ( बिलो स्टैंडर्डॅ ना)


दूसरी वो

जिसके बालों के गुच्छे

सामने कार के शीशें मे फंसे हैं।

वो जिसे पब्लिक ट्रांस्पोर्ट के फिलौसोफी

"पैथेटिक" लगती थी।

वो जो तुम्हारे साथ ही

"जीना" और " जाना" चाहती थी

और तुमने उसकी दोनों इच्छायें पूरी की।

बिल्कुल किसी युनानी देवता की तरह।


तीसरा वो,

जिसे अपनी बुढाती बहन ब्याहनी थी

मरते बाप की श्राद्ध की चिंता करनी थी

हांफती डांफती मां का "एस्थालिन" भी लेना था।


कहता था मैं "सेल्फ मेड" हूं ।

मुझे अप्रोच, बैसाखियां लगती हैं।


सुना है ( मै देखने की हिम्मत नही कर सका)

वो तीसरा बैसाखियां भी नही उठा पा रहा।


मुझे न तुम्हारे पीने के तरीके से गुरेज़ है

न तुम्हारे जीने के सलीके से परहेज ।


नसीहत देनी थी

मगर जाने दो ।


( मित्रों से क्षमा । जिनकी इतनी अच्छी पार्टी के बाद मैने सोगवार लिखा)

( जिन्होने भी यह मान लिया है कि शराब उन्हे नही छोडती, विजय से मिलें । पता मैं दे दुंगा)


Tuesday, October 19, 2010

न जुनूँ रहा ...न परी रही




देखना तुम्हारी हथेलियों कों,

और बताना झूठे भविष्य ।


सताना तुम्हे और कहना,


कि मरोगी तुम छोटी उम्र मे ही ।


कहना तुम्हारा कि

"जानती हूँ"।


बस ये बता दो कैसे?


चूमना उंगलियाँ और कहना मेरा

कि हठात योग है


किसी फसाद में


विश्वासघात से या फिर


बिना किसी कारण ही।


हंसना तुम्हारा और कहना कि

"फसाद मे मरना


अवसाद मे मरने से


कहीं बेहतर है।"


" और श्वास का टूटना


विश्वास के टूटने से कहीँ अच्छा"।


फिर रुआंसा होना तुम्हारा


और कहना


"मैं तुम्हारे साथ बूढी होना चाहती थी"।







सबकुछ खत्म नहीं हुआ प्रिय...........


बस तुम बिन बूढा होना,

विश्वासघात सा लगता है।




(अवनीश को धन्यवाद...जो मुझे याद दिलाते हैँ कि, लिखना, जिवीत रहने की अनुभुति है)

Tuesday, August 24, 2010

तेरा भईया,तेरा चंदा,तेरा अनमोल रतन




मै पला छाया मे तेरे
बांह मे खेला तुम्हारी
पाठशाला थी प्रथम तुम

तुमसे ही सीखी पढ़ाई



जब भी खायी दूध रोटी

मैंने हाथो से तुम्हारे

रूप कोई भी धरो तुम

याद तुममे माँ ही आई


स्वप्न से होकर भयातुर
जब तुम्हारे पास आय़ा
"तुम बहुत ही साहसी हो"
बात ये तुमने बतायी

मुझको नहलाने की
खातिर और बहलाने की खातिर
ये कहा तुमने हमेशा
"बांह से देखो तुम्हारे
कैसे निकलेगी सियाही"


भूल से यदि भूलवश ही
कह दिया हो कुछ भी अनुचित
माफ़ कर देना मुझे तुम
मै तुम्हारा ध्रीस्ट भाई

Saturday, July 10, 2010

सवाल ओ जवाब


उसी युकिलिप्टस पे मेरा नाम दुबारा लिख सकते हो?

नही.

क्यूँ? जगह नही बची?

वजह नही बची.


अच्छा. अब भी दिन के एक खत बिला नागा लिखते हो?

नही?

फिर? क्या करते हो ?

एक्सेल की शीटेँ भरता हूँ.


गजल तो लिखते होगे?

उन्हू.

क्या आशनाई खत्म हो गयी?

रोशनाई खत्म हो गयी.


सालाना उर्स मे जाते हो?

नहीँ.

क्या फुर्सत नही होती?

जुर्रत नही होती.


अब कभी तुमसे मिलना मुमकिन है?

नही.

एहतियातन भी नही?

इत्तिफाकन भी नहीं.

अच्छा............ मुझे मुआफ कर पाओगे?

नही.

क्या मेरा गुनाह ना काबिले माफी है?

तुमने गुनाह कहा,इतना ही काफी है .

Sunday, May 30, 2010

WHAT'S IN THY NAME



तुम्हारे ज़ाए ने तुम्हे माँ कहा है


आज तुमने पूर्णत्व को छुआ है .


अपने प्रारंभ में तुम किसी के घर की लक्ष्मी हुई.


समझने की उम्र में खुद को फलां की बेटी जाना.


भईया की बहन होने में भी कोई षड्यंत्र नहीं था


सुरक्षा ही थी कदाचित .


स्कूलों में भी हाजिरी के "यस सर" तक सीमित थी तुम .


शीशे में खुद को पहचानने के दिनों में


शोहदों ने कुछ नाम भी दिए होंगे तुम्हे .


(मैंने भी एक नाम दिया था याद है तुमको)


फिर शहनाईयों के शोर ने मोहलत न दी होगी


बहू, दुल्हन या फिर भाभी की आदी हो गयी होगी ।


मगर तुम फिर भी खुश हो क्योंकि,


तुम्हारे ज़ाए ने तुम्हे माँ कहा है
आज तुमने पूर्णत्व को छुआ है.


सुनो मेरा कहा मानो


कि अब तो खुद को पहचानो


और उस दिन से हिरांसा हो


वो जिस दिन पूछ बैठेगा


तुम्हारा नाम क्या है माँ?









Thursday, May 13, 2010

सियाह नसीब

उम्र गुजरी है फकीराना मुहब्बत करते

तेरा ही जिक्र,तेरी फ़िक्र, तेरी आदत करते।

कहें कैसे कि कोई जुर्म ए मुहब्बत न करे

अगर न हमने की होती तो नसीहत करते ।

तेरी शरीर निगाहों ने बदगुमान किया

वगरना हम भला कब चाँद की चाहत करते।

तुम्हारे काँधे के तिल कों तीरगी देते

सियाह नसीब न होते तो हिमाकत करते ।

हमें खबर है हकीकत तेरे बहानों की

ख्याल ए इश्क न होता तो शिकायत करते ।

बदगुमानी मे तेरी बात शरियत समझी

जुनू मे तेरे लिखे कों ही वसीयत करते ।

शरीर -chanchal ,mischievous

तीरगी- darkness,

सियाह नसीब -ill fated, बदनसीब