Thursday, February 18, 2010

सलासिल

हरेक भागता लम्हा सम्भाल रखा है
बाद तेरे, तुझे लफ्जोँ मे ढाल रखा है

हम सपेरे भी नही, ना कोई फन आता है
ना जाने क्युँ तुझे आस्तीँ मे पाल रखा है

तेरी बातेँ भी रहेँ और तू बा पर्दा रहे
हमने इसका भी हमेशा खयाल रखा है

गफलतेँ तो मिट गयी तुम्हे मिल के
गुजस्ता वक्त का थोडा मलाल रखा है

बिना हमारे, तुम हमारे बाद कैसे हो ?
बडा ही ला जवाब सा सवाल रखा है

Monday, February 8, 2010

तुम्हारे नाम लिखता हूँ.

पूर्णिमा का चाँद जैसे
अनकही फ़रियाद जैसे

रोशनी फैली हुयी सी
बादलों के बाद जैसे

आसमानी पर लगे हों
"फाख्ता" आज़ाद जैसे

बोल हैं ऐसे तुम्हारे
प्यार का रुदाद जैसे

इस धरा पर कैसे आयीं
तुम तो हो परीजाद जैसे

तुमको पाके यूँ लगा कि
पूरी हो मुर आद जैसे

फाख्ता- चिड़िया,bird
रुदाद- कहानी ,statement,tale
इमदाद-प्रशंसा






Monday, December 28, 2009

The eternal breakup


मुझे नहीं भाता तुम्हारा उभयचर व्यक्तित्व.

कभी तो अठखेलियाँ करती हुयी

जगा जाती हो अगणित इच्छाएं

औ कभी छोड़ जाती हो नितांत अकेला

तुम्हारे आमद तक...........

जर्द पत्ते गिनने को,

वीरान रस्ते खंगालने को,

सरायिकी गीतों का मर्म समझने को,

ट्रेन की बेफिजूल बहसों का हिस्सा बनने को,

अहमको की बातो में

हाँ में हाँ मिलाने को,

दीवानावार ढूंढता हूँ तुम्हे..............

कीट्स के गीतों में,

साइड लोअर्स की सीटों में,

शायिरों की बातों में,

पूरे चाँद की रातों में ,

गाँव वाले मेले में
बरगदों के झूले में

या फिर वहां जहाँ

तुम छूट गए थे मुझसे .

गुजस्ता वक्त के साथ,

भूलने लगता हूँ तुम्हे

तभी टूट जाती है तुम्हारी शुसुप्तावस्था ।

और औचके से आते हो तुम

उसी किशोरवय अठखेलियों के साथ

जगाने कों मेरी दमित इच्छाएं


एक बार कायदे से विलग ही हो जाते .







Saturday, December 5, 2009

I=F/T

तब जबकि तुम नही थे ॥

मैं स्कूली किताबों मे गर्क था

इतना कि आँखें ख़ुद को

यतीम मान बैठीं थीं

खैर! एक शै तब भी

मेरे समझ के बाहर थी

आवेग

"यह किसी चीज पर

बहुत कम समय मे लगे

बल कि प्रतिक्रिया है "

फ़िर तुम आयीं

बहुत थोड़े समय के लिए

फ़िर चली गयीं।

अपने भीतर कुछ महसूस किया

फ़िर इस "कुछ" कि आदत हो गई।

अब जबकि तुम नही हो

एक दिन पड़ोसी के लड़के ने मुझसे पुछा

भइया ! what is impulse ?

और मुझे बे साख्ता तुम याद आ गई

सच है !

कुछ तालीम किताबों से नही

अज़ाबों से मिलती है।

Wednesday, November 11, 2009

दर्स ए मुहब्बत ( asset of love )


तुम्हे वह रसोई याद है ?

सरकारी क्वार्टर की छोटी सी रसोई।

याद है - मैं तुम्हारी रसोई मे बैठा अल सुबह

कितनी अनरगल बातें कर रहा था .

क्रिकेट,फिल्म, पॉलिटिक्स

जाने क्या क्या ।

याद है- मेरे जाने की ख़बर सुन कर

कितनी ही देर से तुम चुपचाप

प्याज़ के बहाने आंसू बहा रही थी

और मैं कम अक्ल इस मुगालते मे,

कि तुम मुझे सुन रही हो
तभी दफअतन घूम कर

तुम मुझसे लिपट गयीं

और बे तहाशा रोने लगीं. याद है

तुम्हे चुप कराने कि सारी कवायद बेकार।

याद है .

तुम्हे ख़ुद से अलग करते वक्त मैंने देखा की

कि मेरे बाएं सीने पर

तेरहवीं पसली के पास्

नमकीन पानी का एक सोता खुल गया है ।

आज एक अरसा बीत गया है

तुम्हारे आंसू जम गए हैं , मिटते ही नही

थम गये है हटते ही नहीं


जानती हो क्यूँ ?

तेरहवीं पसली के नीचे,

ठीक नीचे

दिल होता है ना .

Monday, November 9, 2009

लविन्ची कोड .


(1) ट्रेन आने मे अभी दो घंटे है । मैं सो जाऊँ?

कहाँ?

तुम्हारे काँधे पर ......और कहाँ बेवकूफ।


(2) बताओ तो । तुम्हारी पीठ पर उँगलियों से मैं क्या लिखा?

पता नही ?

तुम अनपढ़ तो नही हो !


(3) मेरीआँखों मे देखो ।

अरे ?

क्या दिखा?

लाल हो गए हैं ।

जाहिल।

(४) ट्रेन आ जायेगी पटरी से हटो .

एक मिनट ।

काली पटरी पर कोयले से इबारत ! तुम इतने समझदार बचपन से हो ?

हम्म।

वैसे लिख क्या रहे हो?

लविन्ची कोड .


9 साल बाद...................

तुम्हे एक बात बतानी थी।

बोलो।

कहीं पढ़ा था.......... लिख के मांगी हुयी मन्नतें सच नही हुआ करतीं

( Thank you AMOL, for permitting me to use your photo graph.)
चित्र - अमोल के ऑरकुट प्रोफाइल से साभार । पीछे दीखता चेहरा भी उन्ही का है .




Tuesday, November 3, 2009

A Discarded Poetry.


मुफलिसी
की इन्तिहाई है
मेरे हिस्से रिदा नही आती.
रंज हर रोज मारती है मुझे
मुझको फ़िर भी कज़ा नही आती .
तुम मुझे अब भी याद करते हो
हिचकियाँ बेवजा नही आतीं.
जिंदगी से बड़ी सज़ा हो कोई
रास अब ये सजा नही आती .
वक्त औ दूरियां सब अपनी जगह
हमारे दरमियाँ नही आती ।

मुफलिसी - गरीबी
रिदा-चादर
कज़ा-मौत