Saturday, September 12, 2009

खाली हाथ


तेरी जात में भी खलिश रही
यह सोचना मेरी भूल थी
तू मेरा कभी भी रहा नही
मेरी कोशिशें ही फिजूल थी

वो जो आसमान में रहता है
वहीँ बैठा हँसता जो रहता है
मेरी एक अर्जी को छोड़ कर
उसे सबकी अर्ज़ कुबूल थी ।

तेरे खयाल जो आ गए
मैं खुशबुओं में नहा गया
तेरी बात भी क्या बात थी
बस मोगरे का फूल थी ।

तुने मुझको ऐसे फ़ना किया
ज्यूँ मैं रास्ते का गुबार था
मैंने वो भी सर से लगा लिया
तेरे पाँव की जो धूल थी ।

मुझे काफिये की ख़बर नही
ये बहर है क्या नही जानता
मैं वो ही लिखता चला गया
जो जिस्त के माकूल थी ।






Thursday, September 10, 2009

खुशफ़हमी


अपनी चाहत की कुछ मियाद अभी बाकी है

तुम मेरे आने का इमकान बनाए रखना ।


मैं भरम में ही बहुत खुश हूँ, बहुत अच्छा हूँ

और तुम भी मुझे नादान बनाये रखना ।


पहले तन्हाई की आदत थी,अब लत है

मेरे घर को यूँ ही वीरान बनाये रखना ।


तू है जैसा भी,तेरी आँखें बहुत पाक रहीं

अपनी आंखों का कुरआन बनाये रखना ।

इमकान -उम्मीद

Wednesday, September 9, 2009

एक ही भूल

मैं नही कहता था देखो बात ये होकर रहेगी।
हूक ये मुझसे निकल कर तेरे दिल मे जा बसेगी ।

तेरी धुन ने ही सदा मब्हूत घूमता हूँ मैं।
तेरे दीवाने पे एक दिन देखना दुनिया हँसेगी ।

रौशनी बातों की मेरे याद आएंगी तुम्हे भी
तीरगी तन्हाईयों की जब कभी तुमको डसेगी ।

गैर को कुछ भी बता दो मेरी हालत का सबब
सामने मेरे जुबां तो लड़खड़ाएगी फंसेगी ।

दोस्त इस रंग ऐ जहाँ को तुमने देखा ही कहाँ है
आज तो सर पे रखा है, कल यही ताने कसेगी ।

मब्हूत- भ्रमित

तबादला

बद बख्त


जिन्दगी, ख्वाहिशें, मुस्कराहट और तुम्हें

बहुत कुछ खो दिया है तलाश ऐ रोज़गार में।


बेखुदी और बेबसी और बेनियाज़ी के इतर

ये दाग ऐ सुर्ख कैसा है निगाहे ऐ यार मे ।


बैठें हैं गुल्शितां मे तेरी राह देखते

तुमने कहा था आओगे अगले बहार मे ।


तेरी नज़र की रौशनी है मेरा उजाला

जब ही तो मेरे पाँव बचे दस्त ऐ खार मे ।


कोई तो है जो करता है सिजदा तेरे लिए
तू भी तो ऐतबार ला परवरदिगार मे ।



बेनियाज़ी- neglect

दाग ऐ सुर्ख- a red spot

दस्त ऐ खार- काँटों का जंगल, a jungle full of thorns.

गुलिश्तां- lawn








Thursday, September 3, 2009

तुम्हारे बाद .........


रिवाजें निभाने का वक़्त आ गया है

तुम्हे भूल जाने का वक्त आ गया है ।


तेरी बदली नजरों से आहत है फ़िर दिल

कि फ़िर मुस्कुराने का वक्त आ गया है ।


शहर भर में फैलीं है अपनी कहानी

अब नजरें बचाने का वक्त आ गया है ।


मैं घर बार भूला था तेरे फिकर में

कि अब लौट आने का वक्त आ गया है ।


तेरा जाना तय था,सो ये ही हुआ भी

बहल ख़ुद ही जाने का वक्त आ गया है ।


वही बर्क नजरें और माह ऐ सितम्बर

कि फ़िर जख्म खाने का वक्त आ गया है .

Tuesday, September 1, 2009

एक बदनज्म


तुम्हारे घर के जीने से लग के बैठना अच्छा ही लगा था
वहीँ से शाम ढले परिंदों को दूर जाते और फ़िर,
धुंधलके मे खो जाते भी देखा था
"छोटी" की बेमानी बातों पर हंसा भी बहुत.
बगल की छत पर खड़ी लड़की की शोख आँखें भी भली ही लगी थी .
देर तक, न जाने कितनी ही देर तक बैठा रहा ।
अपनी फॅमिली एल्बम देखता रहा
आज माँ बहुत याद आ रही थीं .
नीचे कमरे से रह रह कर तुम्हारी आवाज आ जाती थी
पर तुम नही आयीं ...........................
तुम्हारी सब मजबूरियां जायज है जान
मगर तुमने ये कभी सोचा की,
जाने कितने काले कोस चल के कोई तुमसे,सिर्फ़ तुमसे मिलने आया था
परिंदे मेरी छत से भी दिखतें हैं

जीना - stairs