Tuesday, September 4, 2012

एक दलित कविता

शाख से टूटे तो फिर मर जाएँगे पत्ते
फूलों की नुमाईश मे बिखर जाएंगे पत्ते 

मालिक ने भी फूलों को ही तो सर पे चढ़ाया
है मतलबी माली तो किधर जाएँगे पत्ते |

 फूलों की बेरुखी के हश्र का सवाल था
 मेरा था ये जवाब  कि झर  जाएँगे पत्ते 

बारिश ये रहमतों  की तो बस एक फ़रेब है 
तुम देखना ओसों से सँवर जाएँगे पत्ते 

तुमको है ये गुमाँ कि शहर दिल्ली दूर है
 मुझको है  ये यकीन कि शहर जाएँगे पत्ते

9 comments:

  1. फूलों के बेरुखी के हश्र का सवाल था
    मेरा था ये जवाब कि झर जाएँगे पत्ते ..

    जबरदस्त शेर ... पूरी गज़ल धमाल मचा रही है ...

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  2. "mujhko hai yakeen ki shehar jayengay pattey"
    kya khub bhaut acha.......

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  3. bahut khoob sir.. bahut khoob ...
    -Mayank Goswami

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  4. Kya baat hai Sir, aaj kaal aap busy hai kya ? Kuch naya nahi mila padne ko bahut dino seee

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  5. बहुत बहुत बहुत सुंदर रचना है |
    मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें |

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  6. बस एक बात सोच में डाल रही है कि कविता कब से दलित होने लगी |
    आशा

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  7. मुझे भी समझ नहीं आता -दलित कविता क्या है ? दलित साहित्य क्या है ?कविता कविता है साहित्य साहित्य है / रचना बढ़िया है !
    नई पोस्ट वो दूल्हा....
    नई पोस्ट हँस-हाइगा

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  8. waahh lajawab ... ek ek sher umda ..ek ko achha kahu to dusre ki touheen .. badhayi

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