Tuesday, November 3, 2009

A Discarded Poetry.


मुफलिसी
की इन्तिहाई है
मेरे हिस्से रिदा नही आती.
रंज हर रोज मारती है मुझे
मुझको फ़िर भी कज़ा नही आती .
तुम मुझे अब भी याद करते हो
हिचकियाँ बेवजा नही आतीं.
जिंदगी से बड़ी सज़ा हो कोई
रास अब ये सजा नही आती .
वक्त औ दूरियां सब अपनी जगह
हमारे दरमियाँ नही आती ।

मुफलिसी - गरीबी
रिदा-चादर
कज़ा-मौत

4 comments:

  1. bahut hi shandaar kavita hai..... urdu ka bahut hi achche se istemaal kiya hai.....


    par RIDA ka matlab KHUSHI hota hai....

    Gr8 work done...

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  2. यह अच्छा लगता है कि इस बहाने उर्दू का शब्दज्ञान बढ़ रहा है

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  4. सोचता हूँ सबसे लेटेस्ट पोस्ट में ही पिछली पोस्ट की बात भी करूँ... खूबसूरती से जोड़ा है 'मुस्तकबिल' को ...

    कुछ भूले बिसरे से लफ्ज़ मिले यहाँ... कमरे में बिखरे सामान की तरह... पर कमरा जिंदा सा लगा... यह खँडहर कभी तरन्नुम की अजां होगा... और क्या कहूँ... फोल्लो कर लिया है... अब मुसलसल बात होती रहेगी...

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