
क्या पढ़ रहे हो ?
मेरी आँखों पर अपनी हथेली रखते हुए तुमने कहा था ।
नक्श ऐ फरियादी। जानती हो! फैज़ की एक नज़्म है -
"मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग"
इस नज्म ने communism को एक नया स्टैण्डर्ड दिया था ।
सुनोगी?
नहीं। तुम्हारी ये उर्दू फारसी मेरे पल्ले नही पड़ती. तुलसी वाली चाय बनाई है लॉन मे चलो ।
आज २१ फरवरी को तुम्हारा ख़त मिला है।
लिखा है .....
अब फैज़ की ये नज़्म ही तुम्हारा मुस्तकबिल है।
"मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग"
मेरी आँखों पर अपनी हथेली रखते हुए तुमने कहा था ।
नक्श ऐ फरियादी। जानती हो! फैज़ की एक नज़्म है -
"मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग"
इस नज्म ने communism को एक नया स्टैण्डर्ड दिया था ।
सुनोगी?
नहीं। तुम्हारी ये उर्दू फारसी मेरे पल्ले नही पड़ती. तुलसी वाली चाय बनाई है लॉन मे चलो ।
आज २१ फरवरी को तुम्हारा ख़त मिला है।
लिखा है .....
अब फैज़ की ये नज़्म ही तुम्हारा मुस्तकबिल है।
"मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग"
मुस्तकबिल-future
(चित्र गूगल से साभार )
हमारे कथाकार मित्र प्रलेस के अध्यक्ष डॉ.रमाकांत श्रीवास्तव इसे एंटी मोहब्बत नज़्म कहते है । वे इसे गाते भी खूब हैं ।
ReplyDeletePucho na us kagaj se,jis pe aap dil ke bayan likhtehai.
ReplyDeleteTanhayino me beeti baate tamam likhte hai,
Wo Kalam bhi dewani ho gayi,
jis se hum AAP ka comment likhte hai.