
तुम तीन थे ना ?
एक बच गया।
अभागा!
तुम, जो कि खुद मे ही मुकम्मल थे
फकत तुम्हारी सोच तुम्हे हमसे ज़ुदा करती थी।
कुछ कुछ "स्पीड थ्रिल्स" जैसे।
कार के आगे शीशे पर
कत्थई जैसा कुछ सूख गया है
खून ही होगा।
पान तो खाते नही थे तुम ( बिलो स्टैंडर्डॅ ना)
दूसरी वो
जिसके बालों के गुच्छे
सामने कार के शीशें मे फंसे हैं।
वो जिसे पब्लिक ट्रांस्पोर्ट के फिलौसोफी
"पैथेटिक" लगती थी।
वो जो तुम्हारे साथ ही
"जीना" और " जाना" चाहती थी
और तुमने उसकी दोनों इच्छायें पूरी की।
बिल्कुल किसी युनानी देवता की तरह।
तीसरा वो,
जिसे अपनी बुढाती बहन ब्याहनी थी
मरते बाप की श्राद्ध की चिंता करनी थी
हांफती डांफती मां का "एस्थालिन" भी लेना था।
कहता था मैं "सेल्फ मेड" हूं ।
मुझे अप्रोच, बैसाखियां लगती हैं।
सुना है ( मै देखने की हिम्मत नही कर सका)
वो तीसरा बैसाखियां भी नही उठा पा रहा।
मुझे न तुम्हारे पीने के तरीके से गुरेज़ है
न तुम्हारे जीने के सलीके से परहेज ।
नसीहत देनी थी
मगर जाने दो ।
( मित्रों से क्षमा । जिनकी इतनी अच्छी पार्टी के बाद मैने सोगवार लिखा)
( जिन्होने भी यह मान लिया है कि शराब उन्हे नही छोडती, विजय से मिलें । पता मैं दे दुंगा)