
( मित्रों से क्षमा । जिनकी इतनी अच्छी पार्टी के बाद मैने सोगवार लिखा)
यहीं पे मुक्कद्दर की बात आ गयी है. यहीं पे नसीबों से काम आ पड़ा है. मुझे खोदना है पर्वत से दरिया, तेरे सामने भी तो कच्चा घडा है.
देखना तुम्हारी हथेलियों कों,
और बताना झूठे भविष्य ।
सताना तुम्हे और कहना,
कि मरोगी तुम छोटी उम्र मे ही ।
कहना तुम्हारा कि
"जानती हूँ"।
बस ये बता दो कैसे?
चूमना उंगलियाँ और कहना मेरा
कि हठात योग है
किसी फसाद में
विश्वासघात से या फिर
बिना किसी कारण ही।
हंसना तुम्हारा और कहना कि
"फसाद मे मरना
अवसाद मे मरने से
कहीं बेहतर है।"
" और श्वास का टूटना
विश्वास के टूटने से कहीँ अच्छा"।
फिर रुआंसा होना तुम्हारा
और कहना
"मैं तुम्हारे साथ बूढी होना चाहती थी"।
सबकुछ खत्म नहीं हुआ प्रिय...........
बस तुम बिन बूढा होना,
विश्वासघात सा लगता है।
तुम्हारे ज़ाए ने तुम्हे माँ कहा है
आज तुमने पूर्णत्व को छुआ है .
अपने प्रारंभ में तुम किसी के घर की लक्ष्मी हुई.
समझने की उम्र में खुद को फलां की बेटी जाना.
भईया की बहन होने में भी कोई षड्यंत्र नहीं था
सुरक्षा ही थी कदाचित .
स्कूलों में भी हाजिरी के "यस सर" तक सीमित थी तुम .
शीशे में खुद को पहचानने के दिनों में
शोहदों ने कुछ नाम भी दिए होंगे तुम्हे .
(मैंने भी एक नाम दिया था याद है तुमको)
फिर शहनाईयों के शोर ने मोहलत न दी होगी
बहू, दुल्हन या फिर भाभी की आदी हो गयी होगी ।
मगर तुम फिर भी खुश हो क्योंकि,
तुम्हारे ज़ाए ने तुम्हे माँ कहा है
आज तुमने पूर्णत्व को छुआ है.
सुनो मेरा कहा मानो
कि अब तो खुद को पहचानो
और उस दिन से हिरांसा हो
वो जिस दिन पूछ बैठेगा
तुम्हारा नाम क्या है माँ?
उम्र गुजरी है फकीराना मुहब्बत करते
तेरा ही जिक्र,तेरी फ़िक्र, तेरी आदत करते।
कहें कैसे कि कोई जुर्म ए मुहब्बत न करे
अगर न हमने की होती तो नसीहत करते ।
तेरी शरीर निगाहों ने बदगुमान किया
वगरना हम भला कब चाँद की चाहत करते।
तुम्हारे काँधे के तिल कों तीरगी देते
सियाह नसीब न होते तो हिमाकत करते ।
हमें खबर है हकीकत तेरे बहानों की
ख्याल ए इश्क न होता तो शिकायत करते ।
बदगुमानी मे तेरी बात शरियत समझी
जुनू मे तेरे लिखे कों ही वसीयत करते ।
शरीर -chanchal ,mischievous
तीरगी- darkness,
सियाह नसीब -ill fated, बदनसीब
उस रात,
जब मैं तुम्हे देना चाहता था
तुम्हारे हिस्से कि रोटी
तुम्हारे हिस्से के पैरहन
तुम्हारे हिस्से का मकान ........
तुमने मुझे मार्क्सवादी कहा था
रोटी और बन्दूक की फिलासोफी से अपने पल्ले झाडे थे
और फकत अपने हिस्से का प्यार मांगा था
नासमझ वक्त का बेलगाम दरिया बह गया
तुम चली गयी तो समझौते आ गए
आज की रात
जब मैं तुम्हे नहीं दे सकता
तुम्हारे हिस्से की रोटी
तुम्हारे हिस्से का पैरहन
तुम्हारे हिस्से का मकान
और ना ही तुम्हारे हिस्से का प्यार
तुमने मुझे बुद्धिजीवी कहा है
न पूछ कैसी वजह ए कुल्फत है
तुमको रोना तो मेरी आदत है
"भूल जाओ कही सुनी बातें "
क्या गज़ब आप की नसीहत है
मत हो हैरान की मैं नहीं सोता
निस्फ़ रातों मे तेरी लज्जत है
उसको देखे से ऐसे लगता है
अपनी जैसी ही उसकी हालत है
"सत्य" की बात गर करे कोई
मान लेना की जेहनी ग़ुरबत है
वजह ए कुल्फत- दुःख का कारण
निस्फ़-आधी
जेहनी ग़ुरबत- दिमाग रहित