
मुझे नहीं भाता तुम्हारा उभयचर व्यक्तित्व.
कभी तो अठखेलियाँ करती हुयी
जगा जाती हो अगणित इच्छाएं
औ कभी छोड़ जाती हो नितांत अकेला
तुम्हारे आमद तक...........
जर्द पत्ते गिनने को,
वीरान रस्ते खंगालने को,
सरायिकी गीतों का मर्म समझने को,
ट्रेन की बेफिजूल बहसों का हिस्सा बनने को,
अहमको की बातो में
हाँ में हाँ मिलाने को,
दीवानावार ढूंढता हूँ तुम्हे..............
कीट्स के गीतों में,
साइड लोअर्स की सीटों में,
शायिरों की बातों में,
पूरे चाँद की रातों में ,
गाँव वाले मेले में
बरगदों के झूले में
या फिर वहां जहाँ
तुम छूट गए थे मुझसे .
गुजस्ता वक्त के साथ,
भूलने लगता हूँ तुम्हे
तभी टूट जाती है तुम्हारी शुसुप्तावस्था ।
और औचके से आते हो तुम
उसी किशोरवय अठखेलियों के साथ
जगाने कों मेरी दमित इच्छाएं
एक बार कायदे से विलग ही हो जाते .