Monday, December 28, 2009

The eternal breakup


मुझे नहीं भाता तुम्हारा उभयचर व्यक्तित्व.

कभी तो अठखेलियाँ करती हुयी

जगा जाती हो अगणित इच्छाएं

औ कभी छोड़ जाती हो नितांत अकेला

तुम्हारे आमद तक...........

जर्द पत्ते गिनने को,

वीरान रस्ते खंगालने को,

सरायिकी गीतों का मर्म समझने को,

ट्रेन की बेफिजूल बहसों का हिस्सा बनने को,

अहमको की बातो में

हाँ में हाँ मिलाने को,

दीवानावार ढूंढता हूँ तुम्हे..............

कीट्स के गीतों में,

साइड लोअर्स की सीटों में,

शायिरों की बातों में,

पूरे चाँद की रातों में ,

गाँव वाले मेले में
बरगदों के झूले में

या फिर वहां जहाँ

तुम छूट गए थे मुझसे .

गुजस्ता वक्त के साथ,

भूलने लगता हूँ तुम्हे

तभी टूट जाती है तुम्हारी शुसुप्तावस्था ।

और औचके से आते हो तुम

उसी किशोरवय अठखेलियों के साथ

जगाने कों मेरी दमित इच्छाएं


एक बार कायदे से विलग ही हो जाते .







9 comments:

  1. बहुत खूब ......... ढूंढता हूँ तुम्हें कहाँ कहाँ ......... बेहतरीन रचना है ......... भाव और शब्दों से खेलते हुवे ...
    नव वर्ष आप को मंगल मय हो ...........

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  2. सत्य जी ये गज़ब....???

    एक पंक्ति में ....
    " एक बार कायदे से विलग ही हो जाते "

    जान ही निकल दी .....कमबख्त ये कायदा ही तो नहीं आता .....!!

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  3. अच्छी रचना आभार

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  4. इस अच्छी रचना के लिए
    आभार .................

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  5. सत्या, आपने मेरे दिल के किसी नाजुक हिस्से को छू दिया है अपने कमेन्ट से....बहुत धन्यवाद.

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  6. आपकी कविता ने जो छुआ, उसके लिए अलग से साधुवाद.

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  7. jo bhavnae umdi ......... wo bah chali hain ......... sundar hai

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  8. बहुत सुंदर कविता। मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
    iwillrocknow.com

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